मेरी नई रचना।
चलो करते हैं नेतागिरी
यह एक हास्य-व्यंग्य कविता है जो जनता में नेताओं की आम छवि से प्रेरित है। सभी नेता इस कविता के दायरे में नहीं आते। किसी व्यक्ति विशेष नेता से इस कविता की कोई पंक्ति का मेल खाना एक महज इत्तेफाक है। बस लुफ़्त उठाए, प्रतिक्रिया दें और पसंद आएं तो शेअर करे।
ना किसी की जिम्मेदारी,
ना कभी की मगजमारी।
सबसे आसान काम,
चलो करते हैं, नेतागिरी।।
मगर, कुछ ख़ासियत है जरूरी,
आवाज़ में हो जरूरत से ज्यादा दम।
जज्बात हो जरूरत से थोड़े कम,
बस चाहिए दिखावे का थोड़ा सा गम।
सिर पर कोई बोझ ना हो, तो बेहतर है।
खाली, निकम्मे, नाकारे हो,
तो वाह क्या बात है!
पढ़ाई में नहीं लगता है मन,
मेहनत से दुखता है तन बदन।
गणित, वाणिज्य, केमेस्टरी,
पड़ती है बहुत भारी।
छोड़ो पढ़ाई और शुरू कर दो,
आजसे ही नेतागीरी।।
बड़ा ही आयाम है इस कर्मक्षेत्र का,
हर हुनरमंद को अपनाने-बसाने का।
चोर-उचक्का हो या गुंडा-मवाली,
उठाईगीर हो या बलात्कारी।
बेशक हो जेल में, या बेल पर हो।
नेता हर वक्त, मैदान पर हो,
यह कतई नहीं जरूरी ।
चार चमचों का साथ हो,
कुछ अक्ल से अंधों की बारात हो।
ज्ञान-संज्ञान की कुछ खास जरूरत नहीं,
एक अंगूठा हो बरकरार, बाकी सब सही।।
बस एक बार नेता बन जाओगे,
कभी ना कभी पार्षद, विधायक,
या सांसद, तो बन ही जाओगे ।
चुन कर आने की औकात नहीं,
कोई बात नहीं।
जारी रखो चमचागिरी,
पिछवाड़े से ही सही।
कभी ना कभी राजसभा में
तो घूस ही जाओगे।।
बस, फिर क्या बात है।
कभी जो पढ़ाकू थे,
जिनकी बदौलत क्लास में,
हर रोज आपको जूते पड़े ।
वो बने डाक्टर, इंजीनियर,
या सरकारी अधिकारी बड़े।
खूब लो हिसाब हर उस हिमाकत का,
आज वो आपके सलाहकार,
सचीव, पर्सनल असिस्टेंट बन खडे।
कमाल का पावर है नेतागिरी में।
बस एक बार बन जाओ नेता,
होगी पांचो उंगलियां घी में,
और सर कढ़ाई में।।
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'तीर' की कविता
कर्नल वसंत बल्लेवार
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